Sunday, December 2, 2012

Digital खाना

This is 200 years from now :

There will be a Microchip installed in every human being with inbuilt capsules containing 
Proteins, Vitamins and Carbohydrates. Whenever required 'Human' would go online and type a password on a given website and activate the release of the content of capsules in the Body with signals transmitted through a Satellite . This content will be our Food called Digital Khana (Digital Food). I present few lines to the forthcoming era of the Digital World.

Disclaimer : this is just a piece of fiction imagined by me, just enjoy and share if like , thanks alot, Jitesh Mehta 


इक दिन ऐसा आएगा 
जब हम सब Digital खाना खायेंगे 
पानी पीने को तरसेंगे 
Beer से रोज़ नहायेंगे 

इक दिन ऐसा आएगा 
जब हम सब Digital खाना खायेंगे 

Facebook पर Breakfast और 
Linked in पर Lunch लगायेंगे 

इक ऐसा दिन आएगा 
जब हम सब Digital खाना खायेंगे 

My Space पर munching 
दूसरी websites भी होंगी 
Soundcloud और Youtube 
पर लोगों की bites भी होंगी 
Marriage में दूल्हा-दुल्हन 
सिर्फ online ही देखे जायेंगे 

इक ऐसा दिन आएगा 
जब हम सब Digital खाना खायेंगे 

सम्भोग बड़े संजोग  से 
वो भी सिर्फ online ही होगा 
सब जगह जगह पर 
पहनके घूमेंगे Virtual चोगा 
सब दोस्त रिश्तेदार online 
ही एक दूजे को पाएंगे 

इक ऐसा दिन आएगा 
जब हम सब Digital खाना खायेंगे


- जितेश मेहता 




Thursday, August 23, 2012

ये मेरा इक सवाल है



This is a poem on growing Terrorism across the globe

ये कौन हैवान बना
मचा रहा कोहराम है ,
क्या उसका कोई घर नहीं
नहीं क्या कोई काम है ,
क्यूँ सब तरफ मासूमों का
वो करे बुरा हाल है ,
ये मेरा इक सवाल है ।

क्यूँ सोचता नहीं है वो
के जनम एक बार है ,
क्यूँ दुश्मनी में तत्पर
सबको मारने को तैयार है ,
मचा रहा सभी जगह
क्यूँ तेज़ इक बवाल है ,
ये मेरा इक सवाल है ।

कहीं पे बमों से
कहीं पे गोलियों की बोछार से ,
मिटा रहा है वो
प्यार को सत्कार को औज़ार से ,
है सहमी सृष्टि जाने
क्यूँ आया इक भूचाल है ,
ये मेरा इक सवाल है ।

पहले कभी सुनाई देता था ना
किस्सा ये इस देश में ,
अब घूमता रहता  
हर जगह दरिंदा कई भेस में ,
और मचाया उसने क्यूँ
आतंक हर साल है ,
ये मेरा इक सवाल है ।

- जितेश मेहता 

Thursday, June 7, 2012

पहली बारिश आती है तो लगता है


पहली बारिश आती है तो लगता है

किसीने मुर्दे में जान दाल दी हो ,

अकेले बीहड़ जंगल में

जैसे दूकान दाल दी हो |



पहली बारिश आती है तो लगता है

जैसे आसमान से सोना बरस रहा हो ,

और हर गरीब सोने में खेले

जो कौड़ी-कौड़ी को तरस रहा हो |



पहली बारिश आती है तो लगता है

बरसों की तपस्या का फल

एक ही दिन में खिल गया हो ,

और सारी समस्याओं का हल

एक ही घडी में मिल गया हो |



पहली बारिश आती है तो लगता है

किसीका अनंत व्रत अभी टूट गया हो ,

और अकेलेपन से अभी-अभी नाता

छूट गया हो |



पहली बारिश आती है तो लगता है

रुक-रुक कर चलती साँसों को

दौड़ने का मौका मिला हो ,

और बहारों का अचानक चल पड़ा

इक काफिला हो |



पहली बारिश आती है तो लगता है

धरती से हर बीज फूट कर

ख़ुशी से ठहाके मार रहा हो ,

फूल खिलके जैसे अपना आँचल सवांर रहा हो |



पहली बारिश आती है तो लगता है

की ईश्वर ने प्रार्थना सुनके

प्रसाद बरसाया हो ,

और अपने भक्तों को अपना मान गले लगाया हो |


- जितेश मेहता

Wednesday, May 23, 2012

आज बैठा हूँ फिर तुझे याद करने को

आज बैठा हूँ फिर तुझे याद करने को ,
मज़ा आ रहा है ।
मद्धम सी मुस्कान का
छोटा सा बादल,
चेहरे पे च रहा है ।

ठंडी पवन का इक झोंका 
जब बालों से होके गुज़रा,
तेरी नर्म नर्म उँगलियों का 
अहसास दिला रहा है ।

आज बैठा हूँ फिर तुझे याद करने को ,
मज़ा आ रहा है ।
मद्धम सी मुस्कान का
छोटा सा बादल,
चेहरे पे च रहा है ।

पलकों के झपकते ही 
इक आंसूं निकल टपका है,
उस आंसूं की बूँद में 
तेरी आँखें दिखा रहा है ।

आज बैठा हूँ फिर तुझे याद करने को ,
मज़ा आ रहा है ।
मद्धम सी मुस्कान का
छोटा सा बादल,
चेहरे पे च रहा है ।

चिड़ियों का शाम होते ही
जब झुण्ड चेह्चाहाये,
तेरी वो खिलखिलाती 
हसीं सुना रहा है ।

आज बैठा हूँ फिर तुझे याद करने को ,
मज़ा आ रहा है ।
मद्धम सी मुस्कान का
छोटा सा बादल,
चेहरे पे च रहा है ।

है सामने लगा इक 
बरसों पुराना शीशा,
मैं हूँ अकेला तुझ बिन 
मुझको बता रहा है ।

आज बैठा हूँ फिर तुझे याद करने को ,
मज़ा आ रहा है ।
मद्धम सी मुस्कान का
छोटा सा बादल,
चेहरे पे च रहा है ।

-जितेश मेहता 

ज़िन्दगी क्या इक लहर ही तो है

ज़िन्दगी क्या इक लहर ही तो है 

ज़िन्दगी क्या इक लहर ही तो है,
आज उफान पर फिर अचानक ढलती,
कभी तेज़ कभी धीरे चलती,
कभी इक दलदल सी लगे धसा जा रहा हूँ,
किस अनचाहे चक्रवात में फसा जा रहा हूँ ,
कभी सहलाती ठंडी हवा सी,
बहलाती मन को किसी शान्त कर देने वाले 
गीत सी,
कभी दुश्मन कभी प्रीत सी,
कभी चील सी नोचती खरोंच मारती,
कभी इक माँ की मासूमियत सी निहारती,
कभी हौंसला बुलंद तेज़ धार में दौड़ती इक नाँव सा,
कभी इक बाढ़ में डूबता इक गाँव सा,
गहरा तनाव सा,
कभी इक रोशनी,
सुबह के पौ फटते ही दिखती,
कभी अँधेरा, भरी दोपहरी में भी चुबती,
कभी इक चुल्लू भर पानी सी छोटी,
कभी समंदर अथाह लम्बी चौड़ी मोटी,
कभी सिर्फ गहराता सा काला धुआं सा,
कभी प्यासे को मिला इक कुवाँ सा,
कभी भीड़ में अकेलेओपन को मरोड़ती,
कभी अकेलेपन में भीड़ से दूर दौड़ती,
ज़िन्दगी क्या इक लहर ही तो है,
आज उफान पर फिर अचानक ढलती,
कभी तेज़ कभी धीरे चलती

-जितेश मेहता 



बाकी सब ठीक है

बाकी सब ठीक है

धंदा है पूरा मंदा है
बाकी सब ठीक है
घर टूटा  है और गन्दा है
बाकी सब ठीक है
माँ बहु से रूठी है

बाकी सब ठीक है
नौकरी इक थी छूटी है

बाकी सब ठीक है
नजला जुखाम सब सर्द है 

बाकी सब ठीक है
सीने में रहता दर्द है

बाकी सब ठीक है
एक दोस्त है उधारी वाला 

बाकी सब ठीक है
वापस जब पैसा माँगा टाला

बाकी सब ठीक है
गाडी में रहती खराबी है

बाकी सब ठीक है
बापू पूरा शराबी है

बाकी सब ठीक है
पैसा अक्सर कम पड़ता है

बाकी सब ठीक है
भाई भाई से लड़ता है 

बाकी सब ठीक है
बारिश में पानी घर भरता है

बाकी सब ठीक है
नलका भी चूं चूं करता है

बाकी सब ठीक है
पंखा हिलता है गिरता है

बाकी सब ठीक है
फिर मुश्किल से ही फिरता है

बाकी सब ठीक है
महीने के अंत में तंगी है

बाकी सब ठीक है
बिजली की तारें नंगी हैं

बाकी सब ठीक है
ये बाकी की कहानी है

बाकी सब ठीक है
जीवन भर चलती जानी है

बाकी सब ठीक है

- जितेश मेहता

Monday, May 7, 2012

की इक आंधी है हम सब में

की इक आंधी है हम सब में

की इक आंधी है हम सब में
की हम सब नौजवान हैं |

ना कोई काम लगे मुश्किल
जहाँ चाहो लगा लें दिल,
ना जी पाते कभी तिल तिल ,
हैं बस रोनक ही भरते सब जगह
ऐसा अपना जहाँ है |


की इक आंधी है हम सब में
की हम सब नौजवान हैं |

ना सुनना वो बड़ी बातें
उनसे जो खुद ना कर पाते ,
जहाँ चाहें वहीँ जाते
किसी से हम ना घबराते ,
जो बस है फैलता जाए
हम इक ऐसा धुंवां हैं |


की इक आंधी है हम सब में
की हम सब नौजवान हैं |

बदलते रहते हैं हम
हर नियम को हर सदी में ,
घडी को हम बदल देते हैं
हर दूजी घडी में ,
लड़ी हैं हम से सब जुड़ते हैं
रहते इक लड़ी में,
हैं करते हम बहुत कुछ
जाने बिन जाना कहाँ है |


की इक आंधी है हम सब में
की हम सब नौजवान हैं |

नहीं हैं जानना कुछ भी
किसी से जो बड़े हैं ,
के है जिद करना जो हमको
करेंगे लग पड़े हैं ,
हिला ना पाया हमको
कोई भी जब हम अड़े हैं ,
ज़मीं थी पास अब तो हाथ
आना आसमान  है |


की इक आंधी है हम सब में
की हम सब नौजवान हैं |

- जितेश मेहता