Wednesday, May 23, 2012

ज़िन्दगी क्या इक लहर ही तो है

ज़िन्दगी क्या इक लहर ही तो है 

ज़िन्दगी क्या इक लहर ही तो है,
आज उफान पर फिर अचानक ढलती,
कभी तेज़ कभी धीरे चलती,
कभी इक दलदल सी लगे धसा जा रहा हूँ,
किस अनचाहे चक्रवात में फसा जा रहा हूँ ,
कभी सहलाती ठंडी हवा सी,
बहलाती मन को किसी शान्त कर देने वाले 
गीत सी,
कभी दुश्मन कभी प्रीत सी,
कभी चील सी नोचती खरोंच मारती,
कभी इक माँ की मासूमियत सी निहारती,
कभी हौंसला बुलंद तेज़ धार में दौड़ती इक नाँव सा,
कभी इक बाढ़ में डूबता इक गाँव सा,
गहरा तनाव सा,
कभी इक रोशनी,
सुबह के पौ फटते ही दिखती,
कभी अँधेरा, भरी दोपहरी में भी चुबती,
कभी इक चुल्लू भर पानी सी छोटी,
कभी समंदर अथाह लम्बी चौड़ी मोटी,
कभी सिर्फ गहराता सा काला धुआं सा,
कभी प्यासे को मिला इक कुवाँ सा,
कभी भीड़ में अकेलेओपन को मरोड़ती,
कभी अकेलेपन में भीड़ से दूर दौड़ती,
ज़िन्दगी क्या इक लहर ही तो है,
आज उफान पर फिर अचानक ढलती,
कभी तेज़ कभी धीरे चलती

-जितेश मेहता 



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