नदी की व्यथा कथा
फैंको फैंको और ज़रा सा मैला गन्दा पानी
खूब सुनाना फिर दुनिया को मेरी मरी कहानी
कब से तरस रही हूँ मैं इक साँस साफ़ ले पाऊं
शहर बदले गावं भी बदले और कहाँ अब जाऊं
मेरा मैला अंग देख क्यूँ रोती नहीं हैं आँखें
मुझको पीके गन्दा करते तुम इंसान कहाँ के
साबरमती के संत थे तब मेरी होती थी पूजा
अब पूजा सामग्री डाल मुझको कर डाला दूजा
विश्वामित्र ने बैठ किनारे मुझे था शुद्ध कर डाला
तुमने आज बनाया उस विश्वामित्री को नाला
अजी पे डाला कूड़ा कंकर मैली कर दी तापी
रुक जाओ अब संभल भी आओ और बनो न पापी
रुक जाओ अब संभल भी आओ और बनो न पापी
रुक जाओ अब संभल भी आओ और बनो न पापी
-जितेश मेहता
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