Saturday, April 13, 2013

नदी की व्यथा कथा

नदी की व्यथा कथा 


फैंको फैंको और ज़रा सा मैला गन्दा पानी
खूब सुनाना फिर दुनिया को मेरी मरी कहानी 

कब से तरस रही हूँ मैं इक साँस साफ़ ले पाऊं 
शहर बदले गावं भी बदले और कहाँ अब जाऊं 

मेरा मैला अंग देख क्यूँ रोती नहीं हैं आँखें 
मुझको पीके गन्दा करते तुम इंसान कहाँ के  

साबरमती के संत थे तब मेरी होती थी पूजा 
अब पूजा सामग्री डाल मुझको कर डाला दूजा 

विश्वामित्र ने बैठ किनारे मुझे था शुद्ध कर डाला 
तुमने आज बनाया उस विश्वामित्री को नाला 

अजी पे डाला कूड़ा कंकर मैली कर दी तापी 
रुक जाओ अब संभल भी आओ और बनो न पापी 

रुक जाओ अब संभल भी आओ और बनो न पापी 
रुक जाओ अब संभल भी आओ और बनो न पापी 

-जितेश मेहता 

No comments:

Post a Comment